एक कवीता
सोचता हूँ जब भी इस कवीता के बारे में
भूख लग जाती हे
उसकी बेबसी उसकी बेबसी भी नही देखि जाती हे................
एक कवि था बेचारा सा कवीता में खोया रहता था
चोरी चोरी चुपके चुपके कवीता लिखता रहता था
फिर बी ऐसी कवीता ही लिख डाली
जिससे सुन कर उससे
पढ़ी चपले जूते ओर गाली
वो फिर भी कहता फिरता रहा सभी से
कवि तो हम पहले से थे बस ॥
कविताए नही हे ...................
कैसे भागू कविता के चंगुल से
आख़िर कैसे छुडवायु इससे पीछा
ये तो मुझे बदनाम करके मेरा नाम कर गई हे
ये कविता न्ही ये तो मेरा काम तमाम कर गई हे
माना किया था मत पड़ना फिर भी न्ही माने अब भुग्तो