Friday, April 3, 2009

बबर शेर

कृपया इससे मत ही पढ़ेयगा

एक कवीता
सोचता हूँ जब भी इस कवीता के बारे में
भूख लग जाती हे
उसकी बेबसी उसकी बेबसी भी नही देखि जाती हे................
एक कवि था बेचारा सा कवीता में खोया रहता था
चोरी चोरी चुपके चुपके कवीता लिखता रहता था
फिर बी ऐसी कवीता ही लिख डाली
जिससे सुन कर उससे
पढ़ी चपले जूते ओर गाली
वो फिर भी कहता फिरता रहा सभी से
कवि तो हम पहले से थे बस ॥
कविताए नही हे ...................
कैसे भागू कविता के चंगुल से
आख़िर कैसे छुडवायु इससे पीछा
ये तो मुझे बदनाम करके मेरा नाम कर गई हे
ये कविता न्ही ये तो मेरा काम तमाम कर गई हे

माना किया था मत पड़ना फिर भी न्ही माने अब भुग्तो

जिंदगी

ज़िंदगी मेरा भी कभी दरवाजा खटखटाना
मुझसे मिल कर मुझे भी मानना
राहोमें मेरी भी आना
ओर फिर जुदा हो कर मत जाना


ये आँखे भी करती हे तेरा इंतेज़ार
ज़्यादा न्ही बस हर खुशी का करना हे मुझे भी इज़हार
कोई वजा न्ही हे मुस्कुराने की मेरे पास
तो हरमुस्कुराहट को एक वजा बना दे
बस होते हुए भी आँखे नम
मुझे छूकर ले जा सारे गम
समेट कर थोड़ी सी खुशियो की बूंदे
मेरा भी आँचल भिगो दे

सुना कर एक प्यार भारी लोरी
कभी ना टूटने वाली एक मीठी सी नींद सुला दे
जिंदगी मुझे भी अपना बना ले






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