Friday, September 18, 2009

अन्तिम यात्रा

क्यू रो पड़ी तुम मा
मेरी ये अन्तिम यात्रा देख कर
ये अंत न्ही एक शुरूवात हें
कैसे समझाऊ यहा थमी न्ही
यहा से शुरू एक नई सौगात हें

इतना दर्द दिया था मेने दुनिया में आते आते
बस ये अब आख़िरी दर्द दे रही हू जाते जाते
इन आन्सौओ का भी बोझ न्ही ले पाओँगी में
इस दर्द को लेकर इतना लंभा सफ़र न्ही कर पओगि में

जहा में चली हू वाहा भी मेरे कुछ अपने हें
बस कोई बंधन न्ही खुले सब रिश्ते हें
जब में थी तब लगता था सब सुना ओर अकेला
लकिन आज मेरे जाने पर कैसा लगा हें ये मेला

कितना हल्का पन हे यहा
ना कोई गम ना दुख का हे समा
छोड़ आइ हू में पीछे सब वाहा
ओर एक यात्रा ख्तम कर चल पड़ी दुसरे जॅहा

एक रोशिनी ने मुझे खीचा अपनी ओर
न्ही चल रहा मेरा वाहा कोई ज़ोर
इस बंधन से न्ही छूटना मुझे अब
इस बंधन क लिए ही छोड़ आई में पीछे सब
ओर समज गई में जीने का मतलब अब

P.S:-Please Ignore spelling mistakes

12 comments:

  1. Tare jameen dekhi hai kyaa recently ;)

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  2. भाव-पूर्ण अभिव्यक्ति ....सत्य की ओर...आभार ...

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  3. bahut hi pyari kavita.....maa ke sambodhan ne kavita ko aur bhi bhavpurat bna dia....

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  4. hmm... pyara thought.. aisa thought humein kabhi na kabhi to is zindagi mein aata hi hai.. mujhe to bahut aata hai :)

    achha laga aapse milkar..

    Pankaj

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  5. bahoot achi baat kahi hai tumna. bahoot acha lagga. really great.

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  6. gud ...very touching ....amazing ...!!

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